Friday, July 31, 2020

शहीद-ए-आजम उधम सिंह जी की बलिदान दिवस पर शत शत नमन ...

शहीद-ए-आजम उधम सिंह जी की बलिदान दिवस पर शत शत नमन...



सरदार उधम सिंह का नाम भारत की आजादी की लड़ाई में पंजाब के क्रांतिकारी के रूप में दर्ज है. उनका असली नाम शेर सिंह था और कहा जाता है कि साल 1933 में उन्होंने पासपोर्ट बनाने के लिए ‘उधम सिंह’ नाम अपनाया.
उधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 को पंजाब में संगरूर जिले के सुनाम गांव में हुआ था. कम उम्र में ही माता-पिता का साया उठ जाने से उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा और अनाथालय में शरण लेनी पड़ी. लेकिन 1919 में हुए जालियांवाला बाग हत्याकांड के बाद ऊधमसिंह ने शपथ ली कि वह माइकल ओ’डायर को मारकर इस घटना का बदला लेंगे। अपने मिशन को अंजाम देने के लिए ऊधमसिंह ने अलग अलग नामों से अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्राएँ की। सन् 1934 में ऊधमसिंह लंदन गये और वहाँ 9 एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड़ पर रहने लगे। वहाँ उन्होंने यात्रा के उद्देश्य से एक कार ख़रीदी और अपना मिशन पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी ख़रीद ली। भारत का यह वीर क्रांतिकारी माइकल ओ ‘डायर को ठिकाने लगाने के लिए सही समय का इंतज़ार करने लगा। ऊधमसिंह को अपने सैकड़ों भाई बहनों की मौत का बदला लेने का मौक़ा 1940 में मिला। जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को ‘रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी’ की लंदन के ‘कॉक्सटन हॉल’ में बैठक थीC जहाँ माइकल ओ’डायर भी वक्ताओं में से एक था।




13 मार्च 1940 को लंदन के कैक्सटन हॉल में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की एक बैठक चल रही थी. जहां वो भी पहुंचे और उनके साथ एक किताब भी थी. इस किताब में पन्नों को काटकर एक बंदूक रखी हुई थी. इस बैठक के खत्म होने पर उधम सिंह ने किताब से बंदूक निकाली और माइकल ओ’ड्वायर पर फायर कर दिया. ड्वॉयर को दो गोलियां लगीं और पंजाब के इस पूर्व गवर्नर की मौके पर ही मौत हो गई.
गोली चलाने के बाद भी उन्होंने भागने की कोशिश नहीं की और गिरफ्तार कर लिए गए. ब्रिटेन में ही उन पर मुकदमा चला और 4 जून 1940 को उधम सिंह को हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई |

क्या हम इन लड़ाकू विमानों की तरह प्रेम का स्वागत कर पाएंगे ?





क्या हम इन लड़ाकू विमानों की तरह प्रेम का स्वागत कर पाएंगे??

इन यद्ध अस्त्रों को देख कर दुख होता है...
प्रश्न उठता है स्वतः ही....और उत्तर भी कि,
नीति निर्माताओं को अधिक से अधिक वे हाथ तैयार करने थे जो कलम पकड़ सकें..
उन चेतनाओं का संरक्षण करना था, जो ज्ञान और तर्क धारण करते...
और उन वाणियों को प्रसारित करना था,जो ब्रह्मांड का रहस्य खोलते...


काश विश्व में खींची सीमाएं मिट जाए....
और न कोई सत्ता हो न कोई शोषक हो...
बस प्रकृति ही पोषक हो...
तब इन हथियारों की ज़रूरत ही न रहेगी..
तब जंगल प्रेम गाएंगे..
झरने स्नेह बहाएंगे..
मिट्टी साहस उपजायेगी..
हवा ज्ञान फैलाएगी.….
और इंसान इश्क़ करेगा....


रोशनी बंजारे "चित्रा"

Tuesday, July 28, 2020

लड़की एक वजूद



लड़की एक वजूद 


आज फेसबुक पर एक लेख दिखा.... मैंने देखा कि, उस लेख की शुरूआत कुछ इस तरह थी...."मेरी माँ कहती है कि, एक औरत को सिर्फ अपने पति के सामने ही अपना शरीर दिखाना चाहिए,अपने पिता ये भाई के सामने बेशर्मी से अपना शरीर दिखाना हमारी संस्कृति नही है"

उस पूरे लेख का निष्कर्ष यह था कि, लड़कियों को जिस्म अपने पति के अलावा किसी और को नही दिखाना चाहिए क्योंकि यह भारतीय सभ्यता नही है....
एक बड़ा पुरुष वर्ग लेख  से सहमत दिखाई दिया उस पोस्ट में...

परन्तु लड़की के शरीर के बारे में मेरे अपने कुछ व्यक्तिगत विचार हैं....जो आपसे साझा कर रही हूँ...

लडको से कहीं ज़्यादा सेक्सुअल डिज़ायर लड़कियों में होता है ....इसकी पुष्टि विज्ञान भी करता है... 

                              

विपरीत सेक्स के शरीर को देख कर नसें लड़कों की तन जाती हैं पर लड़कियों की नही क्यो??

क्योंकि समाज ने यह व्यवस्था बनाई है ...

बहुपत्नी प्रथा आम लगती है पर बहुपति प्रथा ज़रा अटपटी लगती है....क्यों???

कई आदिवासी कबीलों में  स्त्रीयों के वक्ष को ढंकने का रिवाज नही है ...और यह चौंकाने वाली बात है कि, आदिवासियों में चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज या दुष्कर्म जैसी घटनाएं न के बराबर होती हैं।।।

दुष्कर्म जैसी प्रथा हम सम्भ्रांत लोगो मे प्रचलित है....

इसलिए हमारी बहन या बेटी सुरक्षित रहे यथा पर्दा प्रथा हमारी सभ्यता की निशानी बन गयी..

कपड़ों के सम्बंध में मेरे विचार यह हैं कि, बचपन मे अपनी बेटी या बहन को बिना कपड़े हम सब देखते है ...वात्सल्य की दृष्टि से।।।
पर जब वही बहन या बेटी युवा होती है तब हम उसे शरीर को ढंकने की हिदायत दे डालते हैं...क्योंकि रिश्ता तो वही है...बस शरीर विकसित हो गया।।।।और इन सम्भ्रांत समुदायों में शरीर देख कर ही वासना जागृत होती है।।।

रही बात पति और पत्नि के रिश्ते की....तो अपने साथी के प्रति सेक्सुअल आकर्षण होना प्रकृति प्रदत्त है...

या जिसे साथी बनाने की चाह हो उसके प्रति सेक्सुअल आकर्षण होना सामान्य है...
और ऐसा लड़की, लड़के ,गे ,लेस्बियन, क्वीर सबके साथ होता है...

पर इस आकर्षण का कपड़ों से कोई लेना देना नही है….न ही जिस्म से.....यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है..

क्यों हम लड़कियों के वक्ष को उसकी योनि को हाथ और पैर की तरह स्वीकार नही पाते?

हम सभ्य लोगो की ये कैसी सभ्यता है कि, माहवारी की बात को छुपाना पड़ता है..??

ये कैसी सभ्यता है जिसमें लड़की की खुली टांगें देख कर उसे वेश्या कह दिया जाता है??

इन सब का एक जवाब है पितृसत्ता....

इस पितृसत्ता मे पुरुष को कहीं भी मूत्रर्विसर्जन करने की आज़ादी है..

किसी के साथ भी सेक्स करने की आज़ादी है सहमति से या जबरजस्ती...क्योंकि पुरुषों का ऑर्गेज़म ज़रूरी है...

यह किसी भी पुरूष के बारे में व्यक्तिगत नही है यह पुरी व्यवस्था की बात है कि, बीवी का काम है पति को सुख दे...

बहन का काम है पिता या भाई के अधीन रहे...,और माँ का काम है सभी पुरुषों की सेवा करे  और बहू से सेवा ले..बस सदियो से ये चक्र चल रहा है....


और यह चक्र बस हम तोड़ सकते हैं..

अंत मे बस यही कहूँगी.... अश्लीलता कपड़ों में नही...विचारों और नज़र में है






रोशनी बंजारे चित्रा
 रोशनी बंजारे "चित्रा" ( लेखिका )



Sunday, July 26, 2020

अन्नाभाऊ साठे – एक भुला दिया गया हीरो, एक वाम-पंथी जो अम्बेडकरवादी बना

अन्नाभाऊ साठे – एक भुला दिया गया हीरो, एक वाम-पंथी जो अम्बेडकरवादी बना  




 
हिन्दी जगत अन्ना हज़ारे से बखूबी परिचित है पर उस महान अन्ना से उतना परिचित नहीं है जितना होना चाहिए था। ये अन्ना हज़ारे से भी हजार गुना महान अन्ना कौन है? इस अन्ना को दुनिया अन्ना भाऊ साठे के नाम से जानती है। महाराष्ट्र में यह नाम अब उतना अपरिचित नहीं रहा पर तथाकथित ऊंची जातियों का एक तरह का तिरस्कार तमाम महानता के बावजूद अब भी जारी है। अन्नाभाऊ साठे का जन्म माँग नामक अनुसूचित जाति में हुआ था।

अछूत तो अछूत तिसपर माँ-बाप अत्यंत गरीब थे । कुलकर्णी (ब्राह्मण) गुरुजी के नीचपन के कारण केवल डेढ़ दिन ही स्कूल में टिक पाये और स्कूल छोड़ देना पड़ा । पेट की आग शांत करने के लिए उन्होने अपने गाँव वाटेगाँव (सांगली) से बॉम्बे का लगभग 400 किमी का सफर पैदल ही तय किया । यहाँ वे मजदूर आंदोलनों से गुजरते हुये कम्युनिस्ट लोगों के संपर्क में आए और आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़ गए (बाद में वे रूस भी गए)। उन्होने 35 उपन्यास लिखे। 12 कथासंग्रह लिखे। 3 नाटक, 10 पोवाड़े, एक यात्रा वृतांत 14 तमाशा लिखे । उनके 8 उपन्यासों पर सिनेमा भी बना । उन्होने संयुक्त महाराष्ट्र के आंदोलन में सक्रिय सहभाग लिया और “माझी मैना” लावणी लिखी। अन्नाभाऊ साठे कम्युनिस्ट आंदोलन में थे पर धीरे-धीरे उससे उनका मोहभंग होता गया ।


 
16 अगस्त 1947 को जब देश का सारा ब्राह्मण-बनिया आजादी के जश्न में सराबोर था कम्युनिस्टों के भारी विरोध के बावजूद उन्होने बारिश में भीगते हुये 60 हजार लोगों की रैली बॉम्बे में निकाली और उद्घोषणा दी ” ये आजादी झूठी है देश की जनता भूखी है” । शायद उन्हें आभास हो गया था कि केवल ब्राह्मण-बनिए ही आजाद हुये हैं । अंतत वे कम्युनिस्ट काल्पनिक दुनिया से बाहर आ गए और वास्तविकता स्वीकारते हुये आंबेडकरवादी बन गए । उन्होने अपनी भावनाएं कुछ इस तरह व्यक्त कीं ।

जग बदल घालूनी घाव

सांगून गेले मज भीमराव…

हजारों साहित्यकार आपको मिल जाएंगे पर भयानक विपरीत परिस्थितियों को झेलकर ऊंचाइयों को छूते हुये बहुत कम मिलेंगे । अन्नाभाऊ साठे की महानता किस बात में है? स्कूली अनपढ़ होते हुये भी उन्होने पढ़ने-लिखने की न केवल योग्यता हासिल की बल्कि क्रांति का बहुत बड़ा साहित्य भी रचा जो अच्छे-अच्छे ज्ञानपीठियों की मिट्टी-पलीद कर दे। कम्युनिस्ट आंदोलन के नकली और खोखलेपन को समझने का उनसे अच्छा कोई उदाहरण नहीं है यह उनके जीवन से जाहीर है ।

1969 की 18 जुलाई को उनकी मृत्यु हुई इसी बहाने से आज उन्हें श्रद्धांजली देने के लिए यह पोस्ट लिखने की जरूरत महसूस हुई । कहते हैं बहुत दिनों से वे भूखे थे और भूख के कारण ही वे मृत्यु को प्राप्त हुये । आंबेडकरवादी आंदोलनों को धन कमाने का जरिया समझने वालों और विभिन्न बहाने बनाकर उन्हें बचाने वाले अंधभक्तों के मुंह पर मा कांशीराम का जीवन तो तमाचा है ही फकीरा “अन्नाभाऊ साठे” का जीवन भी यही संदेश देता है ।



निक्कू कुमार

वीरांगना फूलन देवी : एक साहसी महिला


वीरांगना फूलन देवी
 


2.30 बजे वीरांगना फूलन देवी ने उन 22 भेडीयो को एक लाइन में खड़ा कर गोलियों से भून कर अपने ऊपर हुए अत्याचार का बदला लिया था, और 22 बलात्कारी को मौत के घाट उतारा, उन तमाम नरपशु भेडियों व नारी को अबला समझने वालों पर वीरांगना फूलन देवी का ये जोरदार तमाचा था। इसलिए महिलाओं को खासकर बहुजन समाज की उन बहु - बेटियों व महिलाओं से कहता हूँ, कि वीरांगना फूलन देवी की जीवनी को अवश्य पढ़ना चाहिए..!! अगर कोई भी व्यक्ति किसी महिला को अपमानित करता हो, तो उसका विरोध करना बहुत जरुरी है और अपमान का बदला कैसे लिया जाता है, इसके लिए वीरांगना फूलन देवी को पढना जरुरी हैं



गरज उठी जब बीहड़ों में वो बंदूक पुरानी थी,,
नाम फूलन था उसका वो चंबल वाली रानी थी !!

देश की सबसे बड़ी क्रांतिकारी महिला, द रियल आयरन लेडी,बहुजन नेत्री महान् वीरांगना और पूर्व लोकसभा सांसद फूलन देवी जी को उनकी शहादत दिवस पर नीला सलाम है....
!!! जय भीम। जय भारत। जय संविधान 

जय भीम जय कांशीराम



Bhimputra nikku kumar


कहीं हम भूल ना जायें : आरक्षण के जनक, राजर्षी छत्रपती शाहुजी महाराज



🔵 " कहीं हम भूल ना जायें ” 🔵



कोल्हापूर संस्थान के राजा,बहुजन आरक्षण के जनक, राजर्षी छत्रपती शाहुजी महाराज इन्होंने 26 जुलै, 1902 मे भारत में सर्व प्रथम बहुजन समाज के लोगों को अपने कोल्हापुर संस्थान मे 50% अरक्षण (जिसे बाद मे 75% तक बढाया गया) के माध्यम से भागीदारी देकर, उच्च वर्णीय लोगों की प्रशासन मे एकाधिकारशाही (उच्च वर्णीयों का 100% आरक्षण) समाप्त करके सही मायने मे इस देश मे समता प्रस्थापित करने हेतु ठोस कदम उठाया|







आरक्षण से संबंधित बाते/नारे जो भारत मे बहुजन समाज के द्वारा लगाये जाते है:-

🔹 Reservation is not a question of Bread & Butter, its a Matter of Participation.
- Babasahab Dr. B. R. Ambedkar

🔹 वोट से लेंगे CM, PM.
      आरक्षण से लेंगे SP, DM.
                      - Kanshiramji

🔹आरक्षण कोई भिक नही, समता का अधिकार है|

🔹 जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी.
                  - Kanshiramji

🔹 लागु करो- लागु करो, मंडल आयोग (OBC आरक्षण) लागु करो, 
मंडल आयोग लागु करो, वरना कुर्सी खाली करो|
                      - Kanshiramji (मंडल कमिशन लागु कराने हेतु पुरे भारत मे आंदोलन किया, उस समय दिया गया नारा)

118 वे आरक्षण दिन के उपलक्ष्य मे आपको और आपके परिवार को बहुत-बहुत हार्दीक बधाई और मंगलकामनायें

Saturday, July 25, 2020

मान्यवर कांशीराम जी ही फूलन देवी को राजनीति में लायें थे।

मान्यवर कांशीराम जी ही फूलन देवी को राजनीति में लायें थे। 



फूलन देवी  (10 अगस्त 1963 - 25 जुलाई 2001डकैत से सांसद बनी एक भारत की एक राजनेता थीं। एक निम्न वर्ग में उनका जन्म उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव गोरहा का पूर्वा में एक मल्लाह के घर हुआ था।




फूलन देवी को राजनीति में लेकर आने का सबसे पहले विचार मान्यवर कांशी राम जी के मन में आया था। वह चाहते थे कि फूलन देवी बहुजन समाज पार्टी में आएं और संसदीय सीट से चुनाव लड़े। यह वह दौर था जब बसपा खेमे में "तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार" तथा "ब्राह्मण बनिया ठाकुर छोड़ बाकी सब है डीएस-4" के नारे गूंज रहे थे। उस समय फूलन देवी ग्वालियर जेल में बंद थी। वह समय 90 के दशक का समय था। मान्यवर चाहते थे कि फूलन देवी बसपा से जुड़ जाएं। कांशी राम ने उनके चाचा हरफूल के माध्यम से 1991 में बहुजन समाज पार्टी की ओर से नामांकन पत्र पर फूलन देवी से हस्ताक्षर करवाए थे। वह तब ग्वालियर जेल में बंद थी। इस प्रकार मान्यवर कांशी राम जी के प्रयासों से हुए राजनीति में आई तथा अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत उन्होंने नई दिल्ली के संसदीय सीट से की। इस सीट से उनका मुकाबला राजेश खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा जैसी हस्तियों से था। हालांकि बाद में फूलन देवी ने बसपा को छोड़कर समाजवादी पार्टी से जुड़ने की घोषणा कर दी। फूलन देवी ने समाजवादी पार्टी का उम्मीदवार बनना इसलिए स्वीकार किया था क्योंकि उस समय उन पर 48 मुकदमें चल रहे थे। इनमें एक मुकदमा बहमई गांव के 22 ठाकुरों की हत्या का भी था। इस हत्याकांड को फूलन देवी ने 14 फरवरी 1989 को अंजाम दिया था। फूलन देवी को लगा था कि समाजवादी पार्टी ही उन्हें इन मामलों से बरी करवा सकती है। अतः इसी उम्मीद से उन्होंने समाजवादी पार्टी का पल्लू थाम लिया। इस प्रकार मान्यवर कांशी राम जी का फूलन देवी को बसपा में लेकर आने का सपना टूट गया। और वह उनके विरोधी दल में शामिल हो गई। बावजूद इसके भी फूलन देवी सदा मान्यवर कांशी राम जी की इज्जत करती रही। फूलन देवी हमेशा इस बात के लिए कांशी राम जी की धन्यवाद भी करती रही कि उन्होंने ही उनकी जिंदगी को नया मोड़ दिया है, उनके भीतर एक रहनुमा बनने की ललक जगाई है, उनके अंदर की सोई हुई प्रतिमा को झिंझोड़ा है।


-----------सतनाम सिंह (फूलन देवी, सचित्र जीवनी, पेज नंबर 76)

Monday, July 13, 2020

मायावती ने बहुजन समाज के लिए छोड़ा घर


मायावती ने बहुजन समाज के लिए छोड़ा घर...



1977 में दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में जातिवादी व्यवस्था की बुराइयों पर आयोजित एक कार्यक्रम में 21 वर्षीय मायावती के जोरदार भाषण ने कांशीराम का ध्यान उनकी ओर खींचा. उस कार्यक्रम के मुख्य वक्ता जनता दल के नेता राज नारायण थे जिन्होंने आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी का गढ़ माने जाने वाले रायबरेली से इंदिरा गांधी को हराया था. कार्यक्रम में राज नारायण बार बार दलितों को “हरिजन” कह कर संबोधित कर रहे थे. यह शब्द मोहनदास गांधी का दिया हुआ है और दलित इस शब्द से बेहद नफरत करते हैं. जब मायावती की बारी आई तो उन्होंने माइक्रोफोन पकड़ा और राज नारायण पर आरोप लगाया कि उन्होंने पूरी दलित जाति का अपमान किया है. अपनी जीवनी में वह याद करती हैं, ‘‘क्या हरिजन जातिवाचक शब्द नहीं है?’’ मुझे लगता है जाति की रुकावटों को खत्म करने के लिए हो रहा यह सम्मेलन अनुसूचित जाति के लोगों को गुमराह कर रहा है.’’ उनकी किताब के अनुसार जब उनका भाषण खत्म हुआ तो लोग उनके समर्थन में नारे लगाने लगे. वह कह रहे थे, ‘‘राज नारायण मुर्दाबाद, जनता पार्टी मुर्दाबाद’’ और ‘‘डा. अंबेडकर जिंदाबाद’’.


जब मायावती के जोरदार भाषण की बात कांशीराम तक पहुंची तो वह बहुत चकित हो गए. अंबेडकरवादी समूहों में जब आज भी बहुत कम महिलाएं नेतृत्वकारी भूमिका में हैं तो चार दशक पहले 21 साल की, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिला, जो अपनी दलित पहचान के प्रति राजनीतिक रूप से जागरुक और आक्रमक है, किसी ने शायद ही पहले सुना और देखा था. इसके कुछ दिनों बाद कांशीराम एक दिन बिना बताए मायावती के घर पहुंच गए. बातचीत के दौरान उन्होंने मायावती से कहा कि यदि वह जातीय उत्पीड़न से लड़ना चाहती हैं तो प्रशासनिक सेवा से ज्यादा ताकत राजनीतिक सत्ता से मिलेगी. उन्होंने मायावती को इस बात के लिए मनाया कि यदि वह उनके मिशन से जुड़ जाती हैं तो उत्पीड़न के खिलाफ लड़ने का उनका सपना पूरा हो सकता है. कांशीराम ‘‘मिशन’’ शब्द को अक्सर इस्तेमाल करते थे. आज भी बसपा कार्यकर्ता अपने काम को इसी शब्द से परिभाषित करते हैं.

मायावती-कांशीराम संबंध की कहानी गुरु-शिष्य संबंधों के साथ ही उन संबंधों की बेड़ियों को तोड़कर शिष्या का अपने गुरु से सफल राजनीतिज्ञ बनने की कथा भी है. मायावती जो कर सकीं उसके लिए उन्हें असंख्य चुनौतियों का सामना करना पड़ा.



अपनी बेटी की राजनीतिक संलग्नता और कांशीराम के साथ बढ़ती नजदीकियों से चिंतित, पिता ने मायावती को यह कह कर चेतावनी दी कि उन्हें पार्टी या घर में से किसी एक को चुनना होगा. उनके पिता का कहना था कि वह एक अविवाहित महिला हैं इसलिए उनके पास पिता की बात मानने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है. बेखौफ मायावती ने स्कूल टीचर की नौकरी से बचाए पैसों के साथ पिता का घर छोड़ दिया और दिल्ली के करोलबाग में बामसेफ के दफ्तर के बगल में कांशीराम के एक कमरे वाले घर में रहने लगीं. बसपा के पुराने नेता और ‘‘यह एक बड़ा लेकिन दृढ़ कदम था. कौन सी पार्टी थी जो मायावती के इंतजार में बैठी थी. वह कोई इंदिरा गांधी नहीं थीं कि ताज लेकर लोग इंतजार कर रहे थे. वह जयललिता नहीं थी जिन्होंने एआइएडीएमके की स्थापना के 10 साल बाद पार्टी में प्रवेश किया था. वो ममता बनर्जी भी नहीं थी जो लंबे समय तक कांग्रेस कार्यकर्ता रहीं और बाद में दूसरे बागियों के साथ पार्टी से अलग हो कर तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की. ‘‘मायावती ने खतरा उठाया और पार्टी को खड़ा करने के लिए जी जान एक कर दिया.’’

जब कांशीराम अपने स्वागत कक्ष में ताकतवर और प्रभावशाली लोगों के साथ बैठकें कर रहे होते तो मायावती आंगन में दरी बिछा कर ग्रामीण इलाकों से आए दलित पुरुषों को पार्टी में शामिल कर रही होतीं.

मायावती जो कर सकीं उसके लिए उन्हें असंख्य चुनौतियों का सामना करना पड़ा. ये चुनौतियां कभी सीधी सामने आती, कभी उन पर पीछे से हमला होता.


कांशीराम घर के फ्रिज में ताला लगा कर उसकी चाभी अपने पास रखते थे. उन्होंने मायावती और अन्य लोगों को कह रखा था कि जिन लोगों से वह स्वागत कक्ष में मिलते हैं उनके लिए ही कोल्ड ड्रिन्क लाई जाए.) जमीन पर बैठ कर मायावती रोजाना कम से कम पांच जिला संयोजकों से मिलतीं. धीरे धीरे उत्तर प्रदेश के हर जिले में उन्होंने अपनी पहुंच बना ली.

1984 में पंजाब और मध्य प्रदेश में कांशीराम की गतिविधियों को झटका लगा. पंजाब में ऑप्रेशन ब्लू स्टार और मध्य प्रदेश में भोपाल गैस त्रासदी के सामने उनकी गतिविधियां कमजोर पड़ गईं. इस बीच मायावती उत्तर प्रदेश में बिना थके काम करती रहीं. उस वक्त तक मायावती कुर्सी पर बैठ कर लोगों से मिलने लगी थीं. उनसे मिलने आए लोग जमीन पर बैठ कर उनसे बातचीत करते.

मायावती ने साबित कर दिया कि राजनीतिक काम को वोट में बदलने में वह कांशीराम से अधिक सक्षम हैं. 1984 में मायावती ने मुजफ्फरनगर जिले की कैराना लोक सभा सीट से चुनाव लड़ा. 1985 में उन्होंने बिजनौर उपचुनाव लड़ा और 1987 में हरिद्वार उपचुनाव लड़ा. इनमें से किसी भी चुनाव में मायावती को जीत नहीं मिली लेकिन मत संख्या में निरंतर बढ़ोतरी होती गई. कैराना में उन्हें 44 हजार वोट और हरिद्वार में 125000 वोट प्राप्त हुए. 1989 में बिजनौर से वह पहली बार चुनाव जीतने में कामयाब हुईं जबकि कांशीराम ने 1996 में पंजाब के होशियारपुर से पहली बार चुनाव जीता.

इन वर्षों में मायावती उत्तर प्रदेश में पार्टी को खड़ा करने में कामयाब होती जा रही थीं लेकिन दूसरे राज्यों में कांशीराम के प्रयास विफल होते जा रहे थे. साथ ही विचारक कांशीराम के विपरीत मायावती ने खुद को व्यवहारिक नेता के रूप में स्थापित किया. , ‘‘बसपा के लिए यदि कांशीराम कार्ल मार्क्स जैसे थे तो मायावती ‘कार्ल मार्क्स’ के दृष्टिकोण को लागू करने वाली व्लादमीर लेनिन.’’ मायावती की सफलता ने उन्हें राजनीति में ऊंचा रुतबा दिया और पूरी पार्टी में मजबूत पकड़.


जय भीम 

जय कांशीराम


NIKKU 

Thursday, July 9, 2020

" आदिवासी कहता है "ये किस तरह की सभ्यता है तुम्हारी?


"आदिवासी कहता है " ये किस तरह की सभ्यता है तुम्हारी?


थोड़ी देर पहले नेशनल जियोग्राफी पर एक प्रोग्राम दिखा रहा था, जिसमें अमेरिका के कुछ लोग कुछ आदिवासियों को जंगल से लाकर वहां शहर की चकाचौंध और रंगीनियाँ दिखा कर उनको प्रभावित (इंप्रेस) करने की कोशिश करते दिख रहे हैं।

इन लोगों के साथ घूमते हुए एक आदिवासी बड़ी-बड़ी बिल्डिंग्स देखता है। "वाह इतने सारे घर..." बोलते हुए वो बड़ा खुश होता है। फिर वो देखता है कि सड़क किनारे भी लोग हैं जो भीख मांगते हैं और रेन-बसेरे में रात बिताते हैं।

वो उन कार्यक्रम बनाने वालों से पूछता है कि, "ये सब लोग बाहर क्यूँ पड़े हैं.. जबकि आपके पास इतने सारे घर हैं शहर में?"
आयोजक जवाब देता है- "जो घर आप देख रहे हैं वो इन सबके नहीं हैं। वो दुसरे लोगों के हैं।"
आदिवासी पूछता है, "मगर वो सारे घर तो खाली थे.. उनमे कोई क्यूं नहीं रहता?"
आयोजक बोलता है "वो अमीर लोगों के घर हैं। यहाँ लोगों के पास कई-कई घर होते हैं। लोग पैसा इन्वेस्ट करने के लिए घर खरीद लेते हैं। कीमतें बढ़ने तक इंतजार करते हैं, वो इसीलिए खाली पड़े रहते हैं।


," आदिवासी कहता है, "ये किस तरह की सभ्यता है तुम्हारी? किसी के घर खाली पड़े हैं और लोग सड़कों पर रह रहे हैं...जबकि पूरी उम्र आपको रहने के लिए सिर्फ एक घर ही चाहिए...आप अपने अतिरिक्त घर अपनी और नस्लों को क्यूँ नहीं दे देते हैं? ऐसे घरों का क्या करेंगे आप?"


फिर वो आगे बोलता है- "हमारे जंगल में जब कोई नवयुवक शादी करता है तो हम सारे गाँव वाले मिलके उसके लिए घर बनाते हैं...अपने हाथ से उसका छप्पर बनाते हैं और मिलकर बांधते हैं। ऐसे हम एक-दूसरे के लिए अपने हाथों से घर बनाते हैं और अपने बच्चों को बसाते हैं।"


इतनी बात सुनकर कार्यक्रम वाले शर्मिंदा हो जाते हैं, और उन्हें समझ आता है कि जिस सभ्यता की डींग मारने के लिए वो इन आदिवासियों को लाए हैं। इन्होने ही हमारे सभ्य होने का भ्रम चकनाचूर कर दिया एक सीधे और भोले सवाल से...और समझा दिया कि दरअसल हम लोगों की सभ्यता, सभ्यता है ही नहीं। अपनी ही आने वाली नस्लों का शोषण है बस।


~ सिद्धार्थ ताबिश
Siddharth Tabish

Tuesday, July 7, 2020

माननीय सतीशचन्द मिश्राजी आज के तारीख में व्हॉलटीयर की भूमिका निभा रहे है.. यह कहना गलत नही होगा..

माननीय सतीशचंद्र मिश्रा आज के तारीख में व्हॉलटीयर की भूमिका निभा रहे है.. यह कहना गलत नही होगा...

बहूजन समाज के कुछ गद्दार और दलाल संघटन के नेता, कार्यकर्ता, पदाधिकारी  मिश्राजी की तुलना पुष्यमित्र शुंग से करके अपनी ही मूर्खता का परिचय समाज को करा रहे है। इसी तरह मिश्राजी के बारे में  झूठी मनगढंत कहानियां लिखकर समाज के सामान्य कार्यकरताओं को गुमराह कर रहे है, समाज के सामान्य कार्यकर्ताओने इन असामाजिक तत्वों से सावधान रहना चाहिए.. पुष्यमित्र शुंग, विभीषण की भूमिका तो मूलनिवासी संघटन के नेता निभा रहे है। 


यह असामाजिक तत्व ऐसी हरकते मनुवादियों के इशारों पर कर रहे है ताकी बुध्द फुले शाहू डॉ आंबेडकरजी का मिशन कमजोर हो। अगर महापुरुषोक़ा मिशन कमजोर होगा तो बसपा भी कमजोर होगी, अगर बसपा कमजोर होते रहेगी तो रिपब्लिकन पार्टी की तरह बसपा भी खत्म होगी, फिर उसके बाद मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करने के लिये कोई आगे नही आएगा। अगर ब्राम्हणवाद कायम रहता है तो मूलनिवासी संघटन की आर्थीक परिस्थिति भी मजबूत होते रहेगी, बल्कि मजबूत ही है। इन मूलनिवासी संघटनों का टारगेट ब्राम्हणवाद नही है बल्कि बसपा और बहन मायावतीजी है, जिसे बदनाम करके यह लोग समाज को डाइवर्ट करना चाहते है। अगर मूलनिवासी संघटनो का ब्राम्हणवाद टारगेट होता तो इनके नेताओं ने ब्राम्हण बनिया ठाकुरों के खिलाफ चुनाव लड़ना चाहिए था। क्योंकि "राजनीति ही ऐसा एक शस्त्र है जिससे ब्राम्हणवाद को नेस्तनाबूत किया जा सकता है" यह बाबासाहब के विचार है। 

अगर मिश्राजी ब्राम्हणवादी होते तो जिस समय बहनजी ने 2004 में अपनी पूरी गर्दन उनके हाथ मे दि थी, उसी समय मिश्राजी ने गर्दन को दबाकर बहनजी को खत्म कर दिया होता.. मतलब मनुवादियो ने बहनजी पर आय से अधिक संपत्ति का मामला, ताज कॉरिडोर घोटाला जैसे अनेक आरोप लगाकर सीबीआई के माध्यम से चार्जशीट बनाई तब कांशीरामजी ने सतीशचन्द्र मिश्राजी संघटन के लीगल सल्लगार इस पोस्टपर नियुक्त किया और बहनजी ने अपनी पूरी केस की जिम्मेदारी मिश्राजी के हाथ मे सौंप दी और बहनजी 2004 के लोकसभा चुनाव और 2007 के विधानसभा चुनाव में अपने आपको फ्री कर दिया। 2007 में बहुमत से सरकार बनाली.. अगर मिश्राजी बेईमान ब्राम्हणवादी होते तो, मिश्राजी ने बहनजी के केस को कमजोर कर दिया होता और बहनजी को जेल के अंदर पहुंचाया होता..और 2004 में बसपा के 19 एमपी चुनकर नई आये होते और 2007 में पुर्ण बहुमत से सरकार नही बनी होती..  भलेही 2012 से बसपा का जनाधार घटा नही, लेकिन बसपा राजनीतिक रूप से कमजोर जरूर होते आयी। जब बसपा कमजोर हुई तो बसपा के ही पदाधिकारियों ने बसपा को छोड़ दिया और दूसरी मनुवादी पार्टियां ज्वाइन की, लेकिन बसपा कमजोर होने के बाद भी सतीशचन्द मिश्राजी एक मिशनरी कार्यकर्ता की तरह आज भी बसपा के साथ खड़े है और बहनजी के प्रत्येक दिशा निर्दशों का पालन कड़ाई से करते रहते है। 

आप पार्लियामेंट में मिश्राजी के द्वारा रखे गए सभी मुद्दे की जांच कीजिये.. और खुले मन से खुद तय करे कि माननीय सतीशचन्द्र मिश्राजी ने ब्राम्हणवाद के समर्थन के कितने मुद्दे उठाए और दलित, शोषितों, पीड़ितों के समर्थन में और ब्राम्हणवाद के विरोध में कितने मुद्दे उठाए। तब आपको पता चलेगा कि सतीशचन्द्र मिश्राजी ने एक सच्चे मिशनरी वर्कर की तरह आज तक सभी मुद्दे मनुवाद, ब्राम्हणवाद के खिलाफ ही उठाये जिस तरह 1925 से 1932 तक बाबासाहिब आंबेडकरजी के समय उनके संघटन के वरिष्ठ पदाधिकारी बापूसाहेब सहस्त्रबुद्धे जो ब्राम्हण समुदाय से थे, एक सच्चे मिशनरी कार्यकर्ता की तरह बाबासाहिब के साथ खड़े थे और अछूतों के समर्थन में मुद्दे उठाते थे। बाबासाहब के साथ चमारवाड़े में उनका दिया हुआ भाषण तारीफे काबिल था। 


सतीशचंद्र मिश्रा जिस ब्राम्हण वर्ण से आते है, जिस ब्राम्हणवादी व्यवस्था में उनका जन्म हुआ आज उसी ब्राम्हणवादी व्यवस्था के खिलाफ उन्होंने विद्रोह किया। इसलिये माननीय सतीशचन्द मिश्राजी को आज के तारीख में व्हॉलटीयर कहना गलत नही होगा..

आप लोग निचे छायाचित्र में देख सकते हो कि मिश्राजी एक मिशनिरी कार्यकर्ता की तरह बहनजी की सूचनाओं को गम्भीर रूप से सुन रहे है।।








Monday, July 6, 2020

आज मीडिया में फिर खबर आयी की चीन 2 किलोमीटर पीछे हटा।

आज मीडिया में फिर खबर आयी की चीन 2 किलोमीटर पीछे हटा।


लेकिन मोदी जी तो कह रहे थे कि "न वहां कोई हमारी सीमा में घुसा हुआ है, न ही हमारी कोई पोस्ट किसी दूसरे के कब्जे में है" तो आज चीन फिर 2 किलोमीटर पीछे कहाँ से हटा?
अगर चीन 2 किलोमीटर पीछे हटा है तो कहाँ से पीछे हटा है? और कहाँ तक चीन ने कब्जा किया था?

अगर चीन 2 किलोमीटर हमारे जमीन में था और आज पीछे हटा है तो मोदी जी और अन्य सरकार के नुमाइंदे देश और जनता से झूठ क्यों बोल रहे थे?

इस समय वर्तमान में LAC सीमा पर चीन की सेना कहाँ है यह स्थिति पूरे देश को बताई जाए?

आज फिर कहा जा रहा है कि चीन 2 किलोमीटर पीछे हट गया इससे पहले भी एक बार कहा गया था कि चीन 3 किलोमीटर पीछे हट गया है और देश के लोगों को गुमराह किया गया था लेकिन बाद में देश को मालूम पड़ा जब हमारे 20 सैनिकों ने मातृभूमि की रक्षा करते हुए शहीद हो गये तब देश को मालुम पड़ा कि चीनी सैनिक हमारे सरहद में आ गया है।

अपनी छवि बनाने के लिये देश से झूठ बोल कर, देश को गुमराह करके, देश के साथ धोखा ना दो मोदी जी LAC की वर्तमान स्थिति देश को बताओ।
   

  आपका दीपक पांडेय ।

Wednesday, July 1, 2020

बीएसपी किसी के हाथ का खिलौना नहीं है।

बीएसपी किसी के हाथ का खिलौना नहीं है।

कांग्रेस के लोग बेहूदी बातें करते हैं कि बीएसपी बीजेपी की प्रवक्ता बनी हुई है ऐसी ही बेहूदी बातें पहले बीजेपी वाले भी कहते थे। 
जबकि बीएसपी परम पूज्य बाबासाहेब अंबेडकर के मूवमेंट व मान्यवर श्री कांशीराम जी के त्याग व तपस्या की प्रवक्ता है जिनके बताए हुए रास्ते पर ये पार्टी बनी है। 


मैं सभी पार्टियों को ये कहना चाहती हूँ कि ये कांग्रेस व बीजेपी वाले बेहूदी बातें करके अगर ये सोचते हैं कि हमारे लोगों को गुमराह कर देंगे तो ये जान लें कि बीएसपी के लोग अपनी जगह खड़े हैं ये गुमराह होने वाले नहीं है। बीएसपी के लोग कांग्रेस व बीजेपी के अफवाहों का जवाब देना जानते हैं। 


मा.बहन कु.मायावती जी
राष्ट्रीय अध्यक्षा एवं पूर्व मुख्यमंत्री(उ.प्र)
बहुजन समाज पार्टी

बहन जी की रासुका कि फोटो हैं ये, कुछ मंन्दबुद्धी कहते हैं जेल नही गयी बहन जी। जब तुम पैदा भी न हुये थे न तब बहन जी पर रासुका भी लगी जेल भी गयी।

बहन जी की रासुका कि फोटो हैं ये, कुछ मंन्दबुद्धी कहते हैं जेल नही गयी बहन जी। जब तुम पैदा भी न हुये थे न तब बहन जी पर रासुका भी लगी जेल भी गयी।


1980 के दशक मे समाज का वो हाल था दलितो की बहन बेटियो के साथ कहीं भी कुछ भी कर देते थे मनुवादी, और वो बहन बेटिया कुछ ना बोल पाती थी, बसपा ने लड़ना बोलना सिखाया तो आज उनके बेटे बोलते हैं बसपा बहनजी ने किया ही क्या हैं??? 







अहसान फरामोश,,, पूछो अपने बाप दादाओ से बेटियो के साथ बलात्कार होने के बाद भी हाँथ जोड़ कर बाबूजी बाबूजी करते थे, आज बसपा ने लड़ना बोलना सिखा दिया तो उनके बेटे आज उस संघर्षों मे पली बड़ी और आज 45 साल का राजनितिक और समाजिक मिशन का अनुभव व संघर्षों से अच्छी दोस्ती रही माननीय बहनजी को बोलते है भटक गयी, ज्ञान बाटते हैं।  
पहले बहनजी के बराबर संघर्ष कर लो !!



जय भीम
जय कांशीराम
जय बसपा

देश जगाने आया हूं मै देश जगा कर जाउंगा..

देश जगाने आया हूं मै देश जगा कर जाउंगा...
जिस धरती पे मैने जन्म लिया है उसका कर्ज चुकाउंगा।।
जागो-जागो हे युवा साथीयो कब तक यैसे सोओ गे..
अपने हक, अधिकार के खातिर कब तक यैसे रोओगे।।

मै आया हुं तुम्हे बताने महापुरुषो के बलीदानो को..
जीसने तो देदी कुर्बानी अपने ही संतानो को..
पढ़लो कुछ तुम अम्बेडकर को पढ़लो कांशीराम को।।

जिसने तुमको दिया है ताकत कलम के अधिकार को..
मै उन महामानव की तुमको ये बात बताने आया हूं..
शिक्षा है ओ फल, जिसका मै स्वद चखाने आया हूं..
देश जगाने आया हूं मै देश जगा कर जाउंगा..
जिस धरती पे मैने जन्म लिया है उसका कर्ज चुकाउंगा।।




   छोटू सोनवानी
     (अकलतरा)



                                






सुनो कल के लड़को जितनी तुम्हारी उम्र भी नही हैं.. उतना 41 साल का तो बहन जी का सँघर्ष हैं.

👉सुनो कल के लड़को जितनी तुम्हारी उम्र भी नही हैं.. उतना 43 साल का तो बहन मायावती जी का सँघर्ष हैं.👈 यही हैं वो मासूम सी लड़की जो...