Thursday, June 4, 2020

सत्ता के द्वारा नियंत्रित अलगाववादी आन्दोलन


       सत्ता के द्वारा नियंत्रित अलगाववादी आन्दोलन




दुनिया के महान विद्वान डाॅ.बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर जी ने यूं ही नहीं कहा था कि-
"राजनीतिक सत्ता वो मास्टर चाबी है जिसे अगर देश के गरीब, दलित, कमज़ोर वर्ग किसी भी तरह से हासिल कर ले तो वो अपनी हर प्रकार की समस्या रूपी ताले को खोल सकता है।"



क्योंकि सत्ता के पास असीमित पाॅवर होता है। जिसके द्वारा वो जो चाहे वो कर सकती है। जिसको भी मारना चाहे, मार सकती है। जिसकी रक्षा करनी हो कर सकती है। जिसको बरबाद करना हो, कर सकती है। जिसको आबाद करना हो, कर सकती है। जिसको जेल भेजना हो, भेज सकती है। जिसको बचाना हो, बचा सकती है। इसलिए इस देश के कमज़ोर, गरीब,दलित,आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक व सर्व समाज के प्रताड़ित लोगों को एकजुट होकर इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपनी खुद की सत्ता हासिल करने का प्रयास करना चाहिए, उसके अलावा इनके पास और कोई विकल्प नहीं है।

जब जब भी सत्ता के विरुद्ध कोई भी क्रान्तिकारी आन्दोलन की शुरुआत हुई है तब तब सत्ता ने अपने असीमित पाॅवर के दम पर उस आन्दोलन को कुचलने का काम किया है और जब वह आन्दोलन दमनकारी तरीकों से भी नियंत्रित नहीं होती या खत्म नहीं होती तब सत्ता के द्वारा उस आन्दोलन को ही अपने नियंत्रण में लिया जाता है। क्योंकि किसी भी बड़े आन्दोलन को बहुत दिनों तक भूखे प्यासे नहीं चलाया जा सकता या गरीबों के सहयोग से ही उस आन्दोलन का संचालन नहीं किया जा सकता। आन्दोलन को गतिमान बनाये रखने के लिये संसाधनों की आवश्यकता होती है। और सत्ता ये बखूबी जानती है कि आन्दोलनकारी को भी भूख लगती है, उसको भी अन्य संसाधनों की जरूरत पड़ती है। 




  तब वह आन्दोलनकारी योद्धाओं के नेतृत्व के साथ समझौता करती है कि आपको आपकी जरूरत की हर चीज़ मुहैया करायी जायेगी, बशर्ते आपको हमारे अनुसार चलना पड़ेगा। आप अपने आन्दोलन  को गरीबों के बीच में प्रचारित करते रहना, ये कहकर कि हम आपके हक अधिकार की लड़ाई ही लड़ रहे हैं।

लेकिन आपको कब, किसको और कहाँ मारना है ये हम तय करेंगे। और इस तरह से सत्ता और तथाकथित अलगाववादी नेताओं के बीच अघोषित समझौता हो जाता है, और इस खेल में सबसे ज्यादा जिसको नुकसान होता है, वो है गरीब आदमी। जो मजबूरी या दबाव में अलगाववादी आन्दोलन में शामिल हो जाता है या फिर मजबूरी और गरीबी की वजह से सत्ता की सेना में भर्ती हो जाता है। दोनों तरफ से सिपाहियों को लगातार ट्रेनिंग देकर एक दूसरे के खिलाफ इतना ज्यादा दुश्मनी का भाव भर दिया जाता है कि दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं। फिर सरकारी पूंजीवाद और गरीबों के नाम से फायदा उठाने वाले तथाकथित क्रांतिकारी अपने फायदे के लिये दोनों तरफ से लड़ने वाले सिपाहियों को मरवाने का काम करते हैं और दोनों तरफ से मलाई खाने का काम करते हैं। 





इसलिए मानवाधिकार के लिये काम करने वाले कार्यकर्ता भी हमारे ग़रीब समाज के लोगों को सत्ता हासिल करने का फार्मूला बताये। ना कि जो सत्ता में हैं उनके सामने बार बार हड़ताल आन्दोलन कर करके समाज को हमेशा सत्ता के सामने मांगने वाला भिखारी बनाकर पेश करते रहें। मैं तो एक राजनीतिक पहचान के साथ अपने समाज को राजनीतिक सत्ता की मास्टर चाबी हासिल करने के लिये ही समझाता हूँ। उसमें मैं कितना सफल होता हूँ या नहीं ये मेरे प्रयासों के ऊपर है, लेकिन जो मेरे तरीके को पसंद नहीं करते हैं उनको भी यही चाहिए कि हमारे बस्तरिया समाज को अपने तरीक़े 
से जो उनको सही लगे राजनीतिक सत्ता के महत्व को बताने का काम करे।


 उन्हें पूंजीपतियों के हित में काम करने वाली नहीं गरीबों के हित में काम करने वाली सरकार बनाने के लिये प्रेरित करें। क्योंकि ये काम अगर हमारा पढ़ा लिखा तबका नहीं करेगा तो हर चुनाव में पूंजीपतियों का करोडों रुपये खर्च करके गरीबों का वोट लिया जायेगा फिर सरकार बनने के बाद उन्हीं पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के लिये गरीबों को किसी न किसी बहाने से मरवाने का काम किया जाता रहेगा। और हम लोग इस बात को गंभीरता से नहीं लेंगे तो फिर हम केवल ताली और थाली ही पीटते रह जायेंगे।




 
                     हेमंत पोयाम             
         (लेखक)

 








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