Saturday, June 20, 2020

सोच-विचार करने वाला समाज बनाना अत्यंत आवश्यक है

सोच-विचार करने वाला समाज बनाना अत्यंत आवश्यक  है
Kusmunda,korba(C.G)


सोच, सोचना एवं सोचने का हुनर या सोचने का कौशल्य हासिल करना ये तीन अलग-अलग विषय है । इनकी भिन्नता को समझना मानवतावादी विचारधारा को लागू करने वालों के लिए जानना, मानना और अमल करना अत्यंत जरूरी है । 
हमारे महापुरुषों जिनमें............
बाबा गुरु घासीदास जी
महात्मा ज्योतिबा फुले(पटेल) जी
छत्रपति शाहू जी (कुर्मी) राजा जी
बाबा साहब डॉ. अंबेडकर जी के लगभग 160 वर्षो के अनवरत-अथक संघर्ष से निर्मित मानवतावादी विचारधारा का निर्माण हुआ है । 
मानवतावादी विचारधारा को हम सोच या विचारधारा कह सकते हैं यह सोच या विचारधारा महापुरुषों के सोचने की कृति का परिणाम है । जिस किसी ब्यक्ति की सोचने की कृति कौशल्यपूर्ण होती है, वही लोग विचारधारा के संघर्ष को आगे बढ़ा पाते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि सोचने के कौशल्य में प्रवीणता ही मनुष्य के जीवन को सार्थक बनाती है ।

यहां मैनें सोचने के कौशल्य का उपयोग और महत्व प्रकट किया है । कारण जो ब्यक्ति सोचने के कौशल्य में विशेष महारथ हासिल करता है, वही ब्यक्ति ऊंचे-ऊंचे मापदंडों को लांघ पाता है  इसके उदाहरण हमारे महापुरुष हैं । 

साधारण स्थिति में पैदा हुए ये ब्यक्ति महापुरुषों की श्रेणी को भी लांघ चुके हैं । कारण वे सभी बुद्धिमान एवं प्रतिभावान तो थे, परंतु अपने त्यागी व संघर्ष जीवन से उन्होंने *सोचने के कौशल्य* में विशिष्ट प्रवीणता हासिल कर लिए थे । इसलिए वे अपने जीवन मे प्रत्येक मुसीबत, आफत या कठिनाई का सामना कर सके तथा वे बेहतरीन रास्ते ढूंढने में कामयाब रहे हैं ।

महापुरुषों के प्रयासों के परिणामस्वरूप हम लिखे - पढ़े लोग है जिनसे बोधिसत्व बाबा साहब डॉ भीमराव अंबेडकर जी ने बड़ी अपेक्षाएं की थी ये लिखे - पढ़े लोग समाज के लिए उपयोगी बनेंगे, अपने समाज को सोचने वाले समाज बनाएंगे । 

सोचते तो हम सभी हैं कि समाज के लिए उपयोगी बनें लेकिन रास्ते ढूंढने में हमारी असमर्थता ही  हमारी मुसीबत बन जाती है । 

दुसरी तरह समस्या व अफसोस यह भी है कि शिक्षण ब्यवस्था ने हमें सोचना-विचार करना नही सिखाया । कारण मात्र  यही है कि हमे हमारे ही देश में मनुवादी ब्यवस्था के अंतर्गत केवल शिक्षा के अधिकार से वंचित ही नही किया गया, बल्कि हमसे सोचने का नैसर्गिक अधिकार भी छीन लिया गया था, परिणामतः हम हजारों वर्षों तक गुलाम बने रहे । अर्थात शिक्षण-संस्थानों से पाठ्यक्रमों के माध्यम से सोचने का कौटिल्य या हुनर का ज्ञान देने बंद  कर दिया गया । 
अंत मे अब मैं यह कह सकता हूँ कि इन तमाम परिस्थितियों को देखते हुए यह हमारी-आपकी जिम्मेवारी बनती है कि हम  हमारे जाति/समाज/वर्ग को सोच-विचार करने वाला समाज बनाएं ।
और जब हम सोच-विचार करने वाले बन जाएं तभी जाति/समाज/वर्ग में प्रबोधनकर्ता बनें तब लोग हमसे संगठित हो पाएंगे।

 और यदि इस बात को नही समझना/मानना चाहते तो देख लीजिए अनसुलझे नेतृत्वकर्ताओं के कार्य करने के तरीकों से/ भाषणों से जाति/समाज का क्या हाल हो रहा  है




जय सेवा, जय सतनाम,जय भीम
रमेश जाटवर

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